शनिवार, जनवरी 26, 2008

एक हिन्दी चिठ्ठे का पुनर्जनम !

मुझ जैसे नौसिखिये के लिए हिन्दी भाषा में चिठ्ठा लिखना बहुत मेहनत का काम है। इससे पहले कि आप धिक्कार वचन दे - हाँ मैं मानता हूँ कि हिन्दी मेरी मातृभाषा है और हिन्दी में लिखना मेरे लिए बायें हाथ का खेल होना चाहिए। मगर आप समझने की कोशिश करें उस पीढ़ी की मानसिकता को जिसका मैं एक हिस्सा हूँ - उस मानसिक दशा को - जिसमे मैं वर्तमान में जी रहा हूँ। स्थिति यह है कि आप अंग्रेज़ी में सोचने पर मजबूर हो जाते हैं। और यकीन मानें कि यह मेरा हिन्दी प्रेम ही है जो मैं इस चिठ्ठे पर आज उपस्थित हूँ।

आज की "अर्बन" पीढ़ी में पले-बढे एक नौजवान के लिए हिन्दी में सोचना अत्यन्त कठिन है। क्या आपको यह सीडी पसंद है ? - "येस्, आई वुड लाइक टू बाई इट", आज के मैच के क्या हाल हैं ? - "ओह, इट वाज़ डल डे!" क्या आपको चिठ्ठाकारी पसंद है ? - "येस्, आई लव रीडिंग ऎंड राइटिंग इन एनी फॉर्म ऎंड ब्लोग्गिंग इस सर्टन्ली नो एक्स्सेप्शन"। आप कुछ भी सवाल पूछे - जवाब अंग्रेज़ी में ही मिलेगा। क्यों ??? अरे भाई यह विचार प्रकम जो अंग्रेज़ी से शुरू होता है!


मालूम नही आखिरी हिन्दी फ़िल्म कौनसी देखी थी - हाँ मगर कल रात को "युज़वल सस्पेक्ट" देखी थी - यह जरूर याद है! हिन्दी अखबार नज़र किए हुए अरसा हो चुका है - हाँ टाइम्स ऑफ़ इंडिया रोज पढ़ते हैं। स्कूल में सी. बी. एस. ई. माध्यम से पढ़ाई की तो स्पीड का पता है मगर गति का नही। अभियांत्रिकी महाविद्यालय में भी सिर्फ़ "इंजीनियरिंग" पढी। अब दफ्तर में तो अंग्रेज़ी का ही बोलबाला है। "आल दी इश्युस शुड बी सोल्व्ड ऑन अ प्रायोरिटी बेसिस" - बॉस ने बोला येस् तो मतलब येस् !

चहुँ ओर अंग्रेजी की मार सहकर हम लुटे पिटे चले आते हैं एक हिन्दी के चिठ्ठे पे लिखने के लिए। उसमें भी पहले तो हिन्दी में कुछ सोच नही पैदा होते, और जो पैदा होते हैं उनकी अभिव्यक्ति के लिए वाक्यांश नहीं मिलते !

वैसे हालात हमेशा इतने बुरे नहीं थे। मैंने हिन्दी में चिठ्ठाकारी शुरू की थी १६ नवंबर २००७ को। फिर १९ नवंबर २००७ तक ८ चिठ्ठे जोड़ चुका था। मगर बीच में कुछ अपरिहार्य कारणों की वजह से चिठ्ठाकारी की दुकान बंद करनी पड़ी। अब इस साल फिर से शुरुआत कर रहा हूँ। मगर हिन्दी 'मोड" से बाहर आने और अभ्यास छुटने के कारण अब लिखना मुश्किल है। फिर से एक -एक करके पाठक जुटाने पड़ेंगे, फिर से धाक जमानी पड़ेगी, साथी चिठ्ठाकारों से फिर से मेलजोल बढ़ाना पढेगा (शायद भूल ही चुके हों) - फिर से सब कुछ ! उफ़...

मगर मन में आशा है - कि आप सब सुधिजनो के सहयोग से मैं दोबारा अपने पैरों पर खड़ा हो पाउँगा। क्यों नहीं आख़िर उम्मीद पर दुनिया टिकी है!

शनिवार, जनवरी 12, 2008

एक सुबह टीवी के साथ ...

कुछ दिन पहले की ही बात है, ठीक तारीख तो याद नहीं मगर वह बेमतलब है। कुछ औसत सा ही दिन था। सूरज आज भी पश्चिम से उगा था। मगर कुछ अजीब सा महसूस हो रहा था। अरे हाँ, इतनी शांति जो थी ! सुबह - सुबह नरकपालिका वाले आकर गली के सारे कुत्तों को गाड़ी में उठा कर ले गए थे। तभी मकान मालिक ने दरवाज़े पे दस्तक देकर किराये की फरमाईश कर दी। उसको निपटाते ही केबल, अखबार और इंटरनेट का बिल लेने वाले भी आ धमके। काम वाली बाई ने भी मौका देखते ही बहती गंगा में हाथ धो लिए। अपने आप को इतने सारे लोगों के प्रति कर्ज़दार पाकर मैं अपराध भाव से ग्रस्त हो चुका था।

वह ऐसा ही एक दिन था इन सब की मार से त्रस्त मैं आंखें फाड़ के टीवी के सामने बैठा था। पहले कतार से न्यूज़ चैनलों ने अपने दर्शन दिए। हर चैनल हमें वक़्त से भी तेज चलने की सलाह दे रह था। अब यह बताना फिजूल है की यह निर्वाण सिर्फ उनके चैनल के साथ ही संभव था।


पिछले पखवाडे में काफी कुछ घट चुका था। मोदित्व की गुजरात विजय, बेनजीर की सनसनीखेज हत्या, गोवा में सेज , राखी सावंत का नाच, सिडनी का मंकी - क्रिकेट वगैरह - वगैरह। कहने का सार यह की आज न्यूज़ चैनलों के पास ख़बरों की कमी न थी।

आज स्टार न्यूज़ , आजतक और इंडिया टीवी के बीच में बेहूदा खबरों को ब्रेकिंग न्यूज़ बनने की होड़ न थी। यहाँ तक कि देर रात को टीवी सेट पर आकर अंगुली लहराते हुए एक दढियल सज्जन भी आज गुम थे !


किसी तरह इन सुब को निबटा के हम आगे बढे तो कुछ "घरेलु" चैनलों ने अपना रोना मचाया हुआ था। गृह कलेश, षड्यंत्र, छल - कपट, पर स्त्रीगमन, घरेलु ईर्ष्या जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस चल रही थी। भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने का दंभ भरते हुए कुछ स्त्रियाँ नौ गज की साड़ी ,भारी शृंगार, ऊँची संडल, छोटे ब्लाउज़ और ग्लिसरीन उत्पत्त अश्रु नेत्रों में ग्रहण किये हुए एक जज्बाती बहस में मशगूल थी। करोडों की बात तो यूं चल रही थी मानों सभी नवाब की जनी रिक्त हुंडी हाथ में लेकर पैदा हुई हों।


खैर आगे बढ़ते ही बाबा रामदेव ने न जाने किस इश्वर उत्पत्त आसन का प्रदर्शन करके अपने पेट की सारी अंतडियो के अप्रत्यक्ष दर्शन करा दिए। देखकर मानों क्यों दिल में मचली सी होने लगी। कुछ अन्य महानुभाव भी इश्वर भक्ति में लिप्त हों - इस संदर्भ में हमें कुछ उपदेश देने के लिए अपना गला खंखार रहे थे कि हम सटक लिए।

आगे के कुछ चैनल हमारे लिए बधिरों की श्रेणी से हैं। इन राहू केतु चैनलों की संख्या २०-२५ के बीच में है जो कि असाधारण रुप से बढ़ सकती है यदि आप दक्षिणी भारत की तरफ प्रस्थान करें। इन चैनलों पर भरमार है पारदर्शी साडी पहने हुई मांसल अभिनेत्रियों और हजारी के फूलों की क्यारी की तरह होंठों से सटी हुई मूछें धारण किये हुए तोंदले अभिनेताओं की। ऐसे महामानव जिनके लिए चित्रकथाओं के नायक की भांति कुछ भी असंभव नही ! चाहे एक हाथ से ट्रेन को रोकना हो, या फिर अंगुली से दीवार में कील ठोकना या फिर बंदूक से निकली हुई गोली को ब्लेड कि सहायता से दो भागों में विभाजित करना।

इन सब चैनलों को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मान हमने एक लंबी छलांग लगाई, धरती पर कदम रखते ही पाया कि दो अति हृष्ट पृष्ट पुरुष एक दुसरे को उठा कर पटक रहे हैं। तभी काले लंगोट वाले ने एक कुर्सी उठा के दुसरे के सिर पे दे मारी । यह देख रिंग के बाहर खड़ी उसकी महिला सह्भागिनी ने नकटी शूर्पनखा की भाँती चीत्कार करते हुए रिंग के अन्दर छलांग लगाई।

यह सब खून खराबा पीछे छोड़ हम डिस्कवरी के गुच्छे पर आ लटके। और बाक़ी पूरा दिन हमने ग्लोबल वार्मिंग से मोजाम्बिक के पर्यावरण पर हो रहे दुष्प्रभाव का अवलोकन करते हुए बिताया।