बुधवार, सितंबर 18, 2013

हज - क़िस्त १

फ़ारुख़ सईद की उम्र उन्सठ के करीब रही होगी। पिछले तीस बरस से वे अन्धौरी में दर्जी का काम कर रहे थे। दर्जीगिरी उनके खून में थी और ऊपर वाले की रहमत थी कि हाथ का काम था एकदम साफ़। कारीगरी का नये से नया नमूना उनकी दुकान के पीछे बने एक छोटे कारखाने में हर पहल ही ईज़ाद होता था। छोटे से गाँव में रहते थे मगर काम और नाम काफी दूर तक फैले थे। आजमगढ़ के बड़े से बड़े बनिए अपनी दुकान में फ़ारूख़ के सामान की नुमाइश करते थे।

फ़ारुख़ अपने पेशे पर फ़क्र करते थे मगर उसके मज्द से इतना राजी न थे। बदलते वक्त के साथ आज मशीन से बने, मघरबी डिजाईन वाले कपड़े, काफी कम कीमत पर बाजार में मुयस्सर हों तो कोई क्यूँ हाथ की कारीगरी का इंतज़ार करे। होने वाले मुनाफे का अधिकतर हिस्सा बजाज अपनी अंटी में खोंस लेते थे। बची खुची कमाई कारीगरों की पगार, दुकान का सामान और खाते बनाने में चुक जाती थी। घर खर्च बादिक्कत ही निकल पाता था इस वजह से घर का माहौल कुछ तल्ख़ रहता था।


काम के अलावा वे एक और चीज़ पर फक्र करते थे और वह थी उनकी वल्दियत। कई पुश्तों पहले उनके दादे-परदादे मालवण - कोंकण से आजमगढ़ आये थे। उनका मानना था कि वे, आठवीं सदी में हिन्दुस्तान आये और यहीं बसे, अरब सौदागरों की नस्ल से हैं और बसरा (ईराक) में उनकी अस्ल बसायत है। घर में फाक़े मारने की हालत होने पर भी वे अपनी नाक न नीचे होने देते थे।

यूँ तो तंगी के कारण फ़ारुख अपने बीवी और बच्चों के ताने सुनते रहते थे मगर अनसुना सा कर देते थे। बड़ा बेटा मंज़ूर काफी समय से अपनी परचून की दुकान खोलने के लिए कुछ पैसे माँग रहा था, मंझला सलीम नए कपडे, छोटा शाहरुख़ क्रिकेट का बैट और बेटी अफ़साना चूड़ी, लिपस्टिक और चुनरी। रुखसाना के सोने के कंगन तो कई साल से कतार में थे। मगर फारुख थे बड़े घाघ। मज़ाल है कि कभी उनके कान पर जूँ भी रेंग जाये!

हाँ मगर किसी को बताये बिना, वे काफ़ी समय से कुछ रक़म जमा कर रहे थे। न जाने क्या चल रहा था उनके दिमाग में?


आगे जारी…

चित्र साभार Coloribus 

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