बुधवार, अक्तूबर 02, 2013

हिंदी

किसी गायक की आवाज़ की परख का एक मायना विभिन्न सुरों (ऊंचे और नीचे) तक पहुँच पाने की उसकी क्षमता से हो सकता है। क्रिकेट में आल राउंडर (जो एक से ज्यादा विधा में पारंगत हो) को महत्ता दी जाती है। कार्ल लुइस की महानता की एक वजह ये भी है कि वे उच्च कोटि के धावक होने के साथ ही लम्बी कूद के भी सूरमा थे।

किसी भाषा की प्रवीणता जांचने के लिए उस भाषा के 'कैचमेंट एरिया ' की जांच की जा सकती है। आखिर कितना बड़ा है उसका शब्दकोष ? विभिन्न विचारों, मतों, भावनाओं को उस भाषा में कितनी आसानी से अभिव्यक्त किया जा सकता है? वैसे दुनिया में कोई भाषा संपूर्ण नहीं है - मन के विचारों को पूर्णतः प्रतिबिंबित करने की क्षमता किसी भाषा में नहीं है। अंग्रेजी में तो कहा भी जाता है 'लॉस्ट फॉर वर्ड्स'।

हर भाषा ने किसी न किसी विमा में झंडे गाड़े हैं - उर्दू / फारसी से बेहतर शायराना, फ़्रांसिसी से बेहतर इश्किया ,जर्मन से ज्यादा लम्बे शब्द वाली, संस्कृत से अच्छा स्वर विज्ञान, एस्पेरांतो से ज्यादा कृत्रिम, अंग्रेजी से ज्यादा सार्वलौकिक, चीनी से ज्यादा दूभर, पंजाबी से ज्यादा बलवाई, तमिल/इतालवी से ज्यादा धाराप्रवाह दूसरी कोई भाषा नहीं। ऐसे में अपनी हिंदी कहाँ टिकती है?


हिंदी की समस्या यह है कि वह बदलती नहीं या फिर यूँ कहें उसे लोग बदलने नहीं देते। अंग्रेजी की खूबी यह है कि वह दूसरी भाषाओँ से निर्बाध रूप से शब्द कब्जियाती रहती है। हर वर्ष अंग्रेजी में सैकड़ों शब्द जुड़ते रहते हैं, वह असल मायनों में एक जीवंत भाषा है और आगे भी रहेगी। ऊपर से अंग्रेजी सीखने में आसान है और विज्ञान, तकनीकी क्षेत्र की वस्तुतः भाषा बन चुकी है।

हिंदी तो संस्कृतनिष्ठ भाषा बन चुकी है, सदियों पुराने खांचे में ढली हुई। जरा इधर-उधर हुए कि आवाज आती है - भाई मूल से जुड़े रहो। अब क्या कहा जाये - भाई आप क्यों लकीर के फ़कीर बने हुए हो। वह भला हो फ़ारसी और अरबी का जो इतने नए शब्द दिए हिंदी को!

हिंदी की स्तुति करने चला था और हो गयी निंदा। जाना था जापान पहुँच गए चीन ! बहुत लम्बा हो गया, अब स्तुतिपत्र अगली बार ही लिखूंगा।